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Tuesday 17 June 2014

सुंदरता और औरत



औरत का नाम जेहन में आते ही 
एक कोमल आकर्षक काया 
आंखों के सामने सजीव हो उठती है
जिसका भाग्य ही जैसे उसकी सुंदरता हो

कवियों ने उसे हिरनी सा बताया
तो चित्रकारों ने प्रकृति सा मनोरम
गीतों में वह झरने की कल-कल है
तो स्वर में कोयल से भी मीठी 

किसी का जीवन सार बनकर मन में बसाई गई
तो किसी की प्रेयसी बनकर प्रेम के उपमानों से सजाई गई
पर इनमें से कभी किसी रूप में क्या
उसकी सुंदरता से हटकर कुछ वंदनीय हो सका

वह कुरूप रहकर कब प्रेम की पात्र बनी
 उसके सुंदर अंतस को किसी ने यूं सराहा क्या
इस समाज में जब तक वह खूबसूरत है
शायद हर गजल, हर गीत की जरूरत है

स्त्री चित्रण उसके लावण्य के बिना अधूरा लगता है
क्या सफलता है यह औरत की, जिस पर वह इतराती रही
या उसे सौन्दर्य के पाश में बांध, प्रेम के आडंबर से घेर
साजो-सामान बनाने के पीछे की साजिश

विडम्बना ही है कि जीवन के हर रूप में शामिल होकर भी
वह मानव या प्रकृति तुल्य कम सराही, अपनाई गई
उसका तेज, उसकी ममता, उसका त्याग या प्रेम नहीं
उसकी मनोहरता ही उसके होने को साबित करती रही











Saturday 14 June 2014

पापा आपके लिए




मेरे जीवन ग्रंथ, मेरे कर्मयोगी पिता
आपके लिए आज का एक दिन तो क्या
जीवन भर जश्न मनाऊं तो कम है
कि आपके रूप में ईश्वर का हाथ मेरे सिर पर है

आप वेदों की पवित्रता हो मेरे लिए
जिसमें सजी हैं मेरे पुरखों की परिचय ऋचाएं
आपकी आंखों में साक्षात वह ब्रह्म है
जो पीड़ाओं का पहाड़ ढोकर भी उफ नहीं करता

आप मेरे साथ हैं तो तीनों लोक, चौहदों भुवन मेरे हैं
आप हंसते हैं तो जीवन में मुस्कुराहट बिखर जाती है
आपकी मौजूदगी है तो सुंदर हेमंत और बसंत क्या
चारों दिशाएं, आठो ऋतुएं मेरी बाहों में होती हैं

आप नाराज हो जाएं तो ऐसा लगता है
जीवन के आकाश पर बिजली कड़क उठी हो
अस्तित्व की बुनियाद कमजोर लगने लगती है
आपके टूटने से मेरी उम्मीदें जैसे परास्त होने लगती हैं

आपकी उंगली उस सहारे की तरह है पापा
जिसके दम पर मेरा जीवन सार्थक होता है
सचमुच पिता जीवन के हर लम्हे में शामिल हैं आप
और मां तुम उस हर लम्हे की सुंदर साक्षी हो।





Wednesday 11 June 2014

तुम्हारी रोशनी




दिन भर की थकान के बाद
सूरज जब ढलने लगता है
उसकी सुनहरी रश्मियों से टकराकर बनने वाली
तुम्हारी परछार्इं को कैद कर लेना चाहती हूं

छत की मुंडेर पर खड़ी रहकर अनवरत
उस परछार्इं को जाते हर दिन देखती हूं
जो तुम्हारे लौटने के साथ-साथ
मुझसे दूर होती चली जाती है

हर दिन तुम्हें छूकर आने वाली
इन किरणों को आंखों से स्पर्श करती हूं
जैसे तुम्हारे और मेरे दरमियान
स्रेह का अस्तित्व बस इन्हीं से है

मेरी पहुंच से दूर रहकर भी
तुम मुझे रोज छूकर गुजर जाते हो
और तुम्हारी रोशन छवि निहारकर
मेरा मन प्रकाश से भर जाता है

मेरे छज्जे से तुम्हारे छज्जे के कोने तक
ये दूरी जैसे जनम भर की हो 
पर रोज तुम्हारे ओझल होने से पहले
मन की मखमली कैनवास पर
तुम्हारी तस्वीर उतार लेती हूं

ये फासले कब तक रहें कुछ पता नहीं लेकिन
तुम्हारे प्रेम के उजाले से मेरा अस्तित्व जगमगा उठा है
और देखो यह रोशनी हमारे मिलन की
मौन रहकर इस रात को सवेरा बना रही है।







Monday 2 June 2014

मेरे पिता



मां अतुल्य है जीवन की साक्षी है 
लेकिन पिता बिना मां की परिभाषा कहां बन पाती
मां छांव तो पिता वो बरगद का पेड़ हैं
जिसकी छत्रछाया में मां हमें पालती है

मेरे पिता, बचपन में आपकी फटकार के संग
मैंने आपका दिल धड़कते महसूस किया है
पर मां की डांट के बाद आपका प्यार
मन के कोनों में प्रकाश भरता रहा है

आप हैंं तो जीवन सुंदरतम है
आपके होने से ही आंखों में इतने रंग हैं
आपका होना ही मेरा खुद पर विश्वास है
मेरे जीवन के कल्पतरु हैं आप पिता

जीवन के तमाम विषाद पीकर
हर दर्द को अपने सीने में समेटकर 
आपने दी हर मुश्किल को चुनौती
कि आज मेरी सफलताएं आपसे ही हैं

मेरी उपलब्धियों पर मुस्कुराते आप 
मेरी विफलताओं पर अब कुछ नहीं कहते
नहीं, इतना बड़ा तो नहीं होना था मुझे
आप ही मेरे नायक हो, कुछ सवाल तो किया करो

आपका कुनबा बढ़ रहा है लेकिन
इस वटवृक्ष की जड़ें आप ही हो
कि आपकी गोद में सिर रखकर
अब भी वक्त बिताना अच्छा लगता है,

जी चाहता है तोड़ दूं दीवार घड़ी की सुइयां
कि आप बूढ़े नहीं हो सकते कभी
आपकी निरंतरता मेरी रगों में है
मैं दुनिया में आपका ही प्रतिरूप हूं,

आपके होने से ही मैं हूं पिता
आपका कभी न होना कल्पना से भी परे है
इन आंखों में सपने भरने वाले पिता
मैंने आपके बिना दुनिया सोची नहीं अब तक

मेरे मन के जीवट योद्धा
जागो कि तुम ढले नहीं, बस थक गए हो 
मैं हूं तुम्हारी आत्मशक्ति देखो मुझे
तुम्हारी आत्मा का अंश हूं, मुझमें जवान होते पिता