औरत का नाम जेहन में आते ही
एक कोमल आकर्षक काया
आंखों के सामने सजीव हो उठती है
जिसका भाग्य ही जैसे उसकी सुंदरता हो
कवियों ने उसे हिरनी सा बताया
तो चित्रकारों ने प्रकृति सा मनोरम
गीतों में वह झरने की कल-कल है
तो स्वर में कोयल से भी मीठी
किसी का जीवन सार बनकर मन में बसाई गई
तो किसी की प्रेयसी बनकर प्रेम के उपमानों से सजाई गई
पर इनमें से कभी किसी रूप में क्या
उसकी सुंदरता से हटकर कुछ वंदनीय हो सका
वह कुरूप रहकर कब प्रेम की पात्र बनी
उसके सुंदर अंतस को किसी ने यूं सराहा क्या
इस समाज में जब तक वह खूबसूरत है
शायद हर गजल, हर गीत की जरूरत है
स्त्री चित्रण उसके लावण्य के बिना अधूरा लगता है
क्या सफलता है यह औरत की, जिस पर वह इतराती रही
या उसे सौन्दर्य के पाश में बांध, प्रेम के आडंबर से घेर
साजो-सामान बनाने के पीछे की साजिश
विडम्बना ही है कि जीवन के हर रूप में शामिल होकर भी
वह मानव या प्रकृति तुल्य कम सराही, अपनाई गई
उसका तेज, उसकी ममता, उसका त्याग या प्रेम नहीं
उसकी मनोहरता ही उसके होने को साबित करती रही